लाइब्रेरी में जोड़ें

शेखर : एक जीवनी (भाग 1)

लाहे या सोना भी-एक चोट से नहीं बनता। उस पर कई चोटें होती हैं, चोट-पर-चोट, चोट-पर-चोट...

वैसे ही शिक्षण है। एक या दो चोट में नहीं हो जाता, असंख्य चोटें खोती हैं। किन्तु उनमें इतना विभेद नहीं होता, वे एक ही चोट की पुनरावृत्ति मात्र होती हैं...

केवल, कभी जब धातु का आकार टेढ़ा हो जाता है, तब उसे आड़ी-तिरछी चोट भी दे दी जाती है। बस सारा निर्माण, सारा शिक्षण, इन्हीं दो-तीन प्रकार की चोटों का बना होता है, उनकी असंख्य आवृत्ति में। और उन्हीं दो-तीन प्रकार की चोटों को देखकर सारी क्रिया का अनुमान हो सकता है...

एक तीसरा पाठ भी है...

गोमती में बाढ़ आई हुई थी-बहुत बाढ़...

शेखर अपने पिता के साथ घूमने निकला है। घूमने, यानी एक छोटी-सी नाव में बैठकर, उसे बाँसों से निकलवाकर इधर-उधर फिरने, क्योंकि सड़कों तक पर दो-दो हाथ पानी आया हुआ है, रास्ते बन्द हैं-या अगर खुले हैं तो सिर्फ नावों के लिए।

नाव बड़ी-बड़ी सड़कों पर हो आयी है। वहाँ पर तो ऐसी रौनक लग रही है, मानो वेनिस का एक छोटा-सा संस्करण भारत में आ गया हो, क्योंकि नावों में व्यापारी लोग अनेक प्रकार के खाद्य-अनाज, शाक, तरकारी, फल इत्यादि-बेचते फिर रहे हैं; कोई-कोई पुस्तक और अखबार की फेरी दे रहा है, बाढ़ के फोटो और-हाँ, खिलौने तक बिक रहे हैं-नावें घरों के दरवाजों पर ऐसी जा लगती हैं, मानो घाट पर लगी हों और व्यापारी लोग अपने माल का नाम, दाम पुकारते हैं...

पर वह था बड़ी-बड़ी सड़कों पर, जिन्हें वे पार कर आये हैं। अब वे जा रहे हैं शहर के निर्धन अंश में-देखने के लिए। यह अंश बाकी नगर से नीचा है। (होना ही था), इसलिए इसमें अधिक पानी भरा हुआ है, और नाव मजे में चलती है। मजे में! वह मजा! इधर की गलियाँ बिलकुल सुनसान हैं, और दुर्गन्धमयी और अधिकांश घरों पर मातम-सा छाया हुआ है-यदि उसके मौन को कोई भंग करता है तो किसी बच्चे के रोने का स्वर ही...वह अपने पिता से पूछता है, “वे बेचनेवाले इधर क्यों नहीं आते?”

“इधर क्या करने आयें? यहाँ कुछ बिक्री नहीं होती।”

“क्यों?”

“ये गरीब लोग हैं, खरीद नहीं सकते।”

बालक दयाभाव से भरकर उन बेचारे बच्चों की बात सोचता है, जिनके माता-पिता 'गरीब लोग' हैं और उनके लिए खिलौनें नहीं खरीद सकते और न फल।

बालक पूछता है, “इनके बच्चे खेलते कहाँ होंगे?”

“नहीं खेलते।”

“क्यों?”

   0
0 Comments